3.2 अथ तृतीयोऽध्यायः कर्मयोग (यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन) - Spiritual HelpingEra

Wednesday, September 26, 2018

3.2 अथ तृतीयोऽध्यायः कर्मयोग (यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन)

अथ तृतीयोऽध्यायः - कर्मयोग

यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

yajñārthātkarmaṇō.nyatra lōkō.yaṅ karmabandhanaḥ.
tadarthaṅ karma kauntēya muktasaṅgaḥ samācara৷৷3.9৷৷

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥

sahayajñāḥ prajāḥ sṛṣṭvā purōvāca prajāpatiḥ.
anēna prasaviṣyadhvamēṣa vō.stviṣṭakāmadhuk৷৷3.10৷৷

भावार्थ : प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥

dēvānbhāvayatānēna tē dēvā bhāvayantu vaḥ.
parasparaṅ bhāvayantaḥ śrēyaḥ paramavāpsyatha৷৷3.11৷৷

भावार्थ :  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥

iṣṭānbhōgānhi vō dēvā dāsyantē yajñabhāvitāḥ.
tairdattānapradāyaibhyō yō bhuṅktē stēna ēva saḥ৷৷3.12৷৷

भावार्थ : यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥12॥

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥

yajñaśiṣṭāśinaḥ santō mucyantē sarvakilbiṣaiḥ.
bhuñjatē tē tvaghaṅ pāpā yē pacantyātmakāraṇāt৷৷3.13৷৷

भावार्थ : यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥

annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ.
yajñādbhavati parjanyō yajñaḥ karmasamudbhavaḥ৷৷3.14৷৷

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥

karma brahmōdbhavaṅ viddhi brahmākṣarasamudbhavam.
tasmātsarvagataṅ brahma nityaṅ yajñē pratiṣṭhitam৷৷3.15৷৷

भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥

ēvaṅ pravartitaṅ cakraṅ nānuvartayatīha yaḥ.
aghāyurindriyārāmō mōghaṅ pārtha sa jīvati৷৷3.16৷৷

भावार्थ : हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥16॥

No comments:

Post a Comment