2.3 अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग (क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन) - Spiritual HelpingEra

Wednesday, September 5, 2018

2.3 अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग (क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन)

क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन


स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥2.31॥

svadharmamapi cāvēkṣya na vikampitumarhasi.
dharmyāddhi yuddhāchrēyō.nyatkṣatriyasya na vidyatē৷৷2.31৷৷

भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥2.32॥

yadṛcchayā cōpapannaṅ svargadvāramapāvṛtam.
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha labhantē yuddhamīdṛśam৷৷2.32৷৷

भावार्थ : हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥2.33॥

atha caittvamimaṅ dharmyaṅ saṅgrāmaṅ na kariṣyasi.
tataḥ svadharmaṅ kīrtiṅ ca hitvā pāpamavāpsyasi৷৷2.33৷৷

भावार्थ :  किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
र्मरणादतिरिच्यते ॥2.34॥

akīrtiṅ cāpi bhūtāni kathayiṣyanti tē.vyayām.
saṅbhāvitasya cākīrtirmaraṇādatiricyatē৷৷2.34৷৷

भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥2.35॥

bhayādraṇāduparataṅ maṅsyantē tvāṅ mahārathāḥ.
yēṣāṅ ca tvaṅ bahumatō bhūtvā yāsyasi lāghavam৷৷2.35৷৷

भावार्थ : इऔर जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥
अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥2.36॥

avācyavādāṅśca bahūn vadiṣyanti tavāhitāḥ.
nindantastava sāmarthyaṅ tatō duḥkhataraṅ nu kim৷৷2.36৷৷

भावार्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥2.37॥

hatō vā prāpsyasi svargaṅ jitvā vā bhōkṣyasē mahīm.
tasmāduttiṣṭha kauntēya yuddhāya kṛtaniścayaḥ৷৷2.37৷৷

भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥2.38॥

sukhaduḥkhē samē kṛtvā lābhālābhau jayājayau.
tatō yuddhāya yujyasva naivaṅ pāpamavāpsyasi৷৷2.38৷৷

भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

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