2.1 अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग (अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद) - Spiritual HelpingEra

Wednesday, September 5, 2018

2.1 अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग (अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद)

अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद


संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥2.1


sañjaya uvāca

taṅ tathā kṛpayā.viṣṭamaśrupūrṇākulēkṣaṇam.
viṣīdantamidaṅ vākyamuvāca madhusūdanaḥ৷৷2.1৷৷


भावार्थ : संजय बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥


श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2


śrī bhagavānuvāca

kutastvā kaśmalamidaṅ viṣamē samupasthitam.
anāryajuṣṭamasvargyamakīrtikaramarjuna৷৷2.2৷৷
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3


klaibyaṅ mā sma gamaḥ pārtha naitattvayyupapadyatē.
kṣudraṅ hṛdayadaurbalyaṅ tyaktvōttiṣṭha parantapa৷৷2.3৷৷
भावार्थ :  इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥2.4


arjuna uvāca
kathaṅ bhīṣmamahaṅ saṅkhyē drōṇaṅ ca madhusūdana.
iṣubhiḥ pratiyōtsyāmi pūjārhāvarisūdana৷৷2.4৷৷


भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥2.5


gurūnahatvā hi mahānubhāvān

śrēyō bhōktuṅ bhaikṣyamapīha lōkē.
hatvārthakāmāṅstu gurūnihaiva
bhuñjīya bhōgān rudhirapradigdhān৷৷2.5৷৷
भावार्थ : इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥2.6


na caitadvidmaḥ katarannō garīyō

yadvā jayēma yadi vā nō jayēyuḥ.
yānēva hatvā na jijīviṣāma-
stē.vasthitāḥ pramukhē dhārtarāṣṭrāḥ৷৷2.6৷৷


भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥2.7


kārpaṇyadōṣōpahatasvabhāvaḥ 

pṛcchāmi tvāṅ dharmasaṅmūḍhacētāḥ.
yacchrēyaḥ syānniśicataṅ brūhi tanmē
śiṣyastē.haṅ śādhi māṅ tvāṅ prapannam৷৷2.7৷৷


भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥2.8


na hi prapaśyāmi mamāpanudyā-

dyacchōkamucchōṣaṇamindriyāṇām.
avāpya bhūmāvasapatnamṛddham
rājyaṅ surāṇāmapi cādhipatyam৷৷2.8৷৷


भावार्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥2.9


sañjaya uvāca

ēvamuktvā hṛṣīkēśaṅ guḍākēśaḥ parantapa.
na yōtsya iti gōvindamuktvā tūṣṇīṅ babhūva ha৷৷2.9৷৷


भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्‌! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥2.10


tamuvāca hṛṣīkēśaḥ prahasanniva bhārata.

sēnayōrubhayōrmadhyē viṣīdantamidaṅ vacaḥ৷৷2.10৷৷


भावार्थ : हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥

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